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जगदेव प्रसाद: शोषित और वंचितों के मसीहा की हत्या के बाद शव को गायब करने की कोशिश

मैं जिस लड़ाई की शुरुआत कर रहा हूं वह सौ साल तक लंबी चलेगी , जिसमें  पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे और तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे, अन्तोगत्वा जीत हमारी ही होगी|  

 

भारत लेलिन जगदेव प्रसाद जगदेव प्रसाद (फ़रवरी 02, 1922 –जहानाबाद के कुर्था प्रखंड (अब अरवल ) के कुरहारी गाँव में कोइरी-शाक्य समुदाय में हुआ था. इनके पिता प्रयाग नारायण पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे. और माता रासकली गृहणी थीं. अपने पिता के मार्गदर्शन में जगदेव ने मिडिल की परीक्षा पास की और हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए. 1946 में जगदेव बाबू ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण  की. निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण की शुरू से हीं संघर्षशील तथा जुझारू स्वाभाव के थे | 

साहदत सितम्बर 05, 1974) प्रखंड कार्यालय पर भाषण देते समय दमनकारी के द्वारा उनको गोली मार दी गई

एक क्रन्तिकारी व्यक्तित्व थें. यह उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही था कि दुसरे राज्यों के आन्दोलनरत साथी उनको अपने कार्यक्रमों में बुलाते, उनसे विचार-विमर्श करतें और उनसे आवश्यक दिशा-निर्देश प्राप्त करतें थें. उनका प्रभाव पुरे भारत भारत में सर्वमान्य था. यह उनका क्रन्तिकारी विचारो का ही प्रभाव था कि अमेरिकी और रुसी इतिहासकार और पत्रकार उनके साक्षात्कार अपने-अपने देशो में छपा और बताया कि भारत के सवर्ण समुदाय भारत को जैसा दिखाते है और बतातें हैं वैसा नहीं है. भारत लेनिन जगदेव प्रसाद भारत को सच्चे अर्थो में सर्वहारा की दृष्टि से देखतें थें. जबकि उनका आरोप था कि मार्क्सवाद में कोई समस्या नहीं है बल्कि समस्या भारतीय मार्क्सवाद में है जिसकी जड़े सवर्णवाद और ब्रह्मंवाद में है क्योकि, उन्हीं लोगो ने इसपर अपना कब्ज़ा जमा लिया है. 

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद के बढ़ाते प्रभावों को देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं था जब पुरे भारत में उनका प्रभाव होता. 

शोषित वंचित पिछड़े और बेसहारो की वो प्रमुख आवाज थें. यही कारण है कि शोषक जाति के रूप में भूमिहारो ने उनकी हत्या उस समय कर दी जब वो भाषण दे रहें थें.

 इनके द्वारा कहे गए नारे जो बाद में मशहूर हुए

पुनर्जन्म व भाग्यवाद..इनसे जन्म ब्राह्मणवाद..दस का शासन नब्बे पर…नहीं चलेगा नहीं चलेगा.

सौ में नब्बे शोषित है..शोषितों ने ललकारा है…धन धरती व राज पाट में…नब्बे भाग हमारा है.

इन साल सावन भादो में गोरी कलाई कादो में

उची जाती की क्या पहचान.. गिट बिट बोले करे न काम… नीची जाति की क्या पहचान… करे काम पर सहे अपमान.

जो जमीन को जोते बोय.. वही जमीन का मालिक होय.

करे धोती वाला..खाय टोपी वाला.. नही चलेगा, नही चलेगा

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भारत लेनिन जगदेव प्रसाद भारत के पहले जननायक थें जिनकी हत्या उस समय हुई जब वो भाषण दे रहें थें. भारत में भाषण देते समय दूसरी हत्या चंद्रशेखर उर्भ चंदू की हुई थी. चंद्रशेखर उर्भ चंदू जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थें. इनकी हत्या भी उन्हीं ताकतों ने की थी जिसने जगदेव प्रसाद की की थी. यह महज संयोग नहीं है कि दोनों ही एक ही समुदाय से आतें हैं. बल्कि सच यह है कि इस समुदाय और समाज ने सामाजिक न्याय के लिए अपनी अनेको कुर्बानियां दी है. 

भारत लेनिन जगदेव का व्यक्तित्व बहुत विशाल था, उनके बारे में एक लेख में सब कुछ कहना असंभव है. एक मोटी ग्रंथ लिखना पड़ेगा और हो सकता है वह भी कम पड़ जाए. इसलिए इस लेख में मैं शिक्षा पर उनके विचारो के एक अंश पर विचार कर उसे उद्धृत करना चाहूँगा. 

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एक स्वतः उठाने वाला स्वाभाविक सवाल है कि सवर्णों की राष्ट्रीयता क्या है? उनकी राष्ट्रीयता को स्वर्ण जातीय वर्चश्व के रूप में समझ सकतें हैं. उनकी मनुस्मृति भी यही कहता है. उनके हिन्दू शास्त्र और धर्म-शास्त्र भी यही कहतें हैं. इन्हीं परिस्थितियों में भारत लेलिन जगदेव प्रसाद कहतें हैं “राष्ट्रीयता और देशभक्ति का पहला तकाजा है कि कल का भारत नब्बे प्रतिशत शोषितों का भारत बन जाए” (बोकारो, अक्टूबर 31, 1969, देखें ‘जगदेव प्रसाद वांग्मय’ द्वारा डा. राजेंद्र प्रसाद और शशिकला, सम्यक प्रकाशन, 2011). उनकी यह मांग सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सिमित नहीं था. उनकी मांग थी “सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रसाशन के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम-से-कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाए” (बिहार विधान सभा, अप्रैल 02, 1970). साथ ही “राजनीति में (भी) विशेष अवसर सिद्ध्यांत लागु हो” (रुसी इतिहासकार पाल गार्ड लेबिन से साक्षात्कार, फ़रवरी 24, 1969) यह उनकी राष्ट्रीयता थी.

भारत लेनिन जगदेव प्रसाद एक दूरदृष्ट्रा थे – जो वो आज से लगभग 50 साल पहले कह रहें थें, और उसपर अमल कर रहें थें उसे आजके सामाजिक न्याय के ठेकेदार ने आजतक नहीं समझ सका या करना नहीं चाहता. 

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना सही था कि भारत एक राष्ट्र न होकर कई राष्ट्र है. भारत की एक राष्ट्रीयता इसकी दूसरी राष्ट्रीयता को हेय दृष्टी से देखता है, नीची नज़रो से देखता है, उसे दुसरे दर्जे का नागरिक समझता है, या उसे नागरिक ही नहीं समझता है. उसे इन्सान ही मानने को तैयार नहीं है. जगदेव प्रसाद ने उनकी इन्हीं राष्ट्रीयता की चुनौती दी थी. जगदेव प्रसाद भारत के पहले नेता थे जिन्हें सवर्णों/ सामंतो ने भाषण देते समय गोली मार दी थी. 

भारत लेलिन के सहादत को हम इस संकल्प के साथ नमन करें कि हमें उनके सपनों को साकार करना है. यह समाज के लिए गर्व का विषय हैं तो हमारा कर्तव्य है कि उनके द्वारा जलाया गया दीया की किरण समाज में फैलाती ही जाए. हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारे समाज के सभी महान व्यक्तित्वों ने जो कुछ भी किया पुरे समाज के लिए किया. यह हमारी पहचान और प्रेरणा स्रोत दोनों है. 

 

 

उनके जीवन जुड़े कुछ जरुरी बाते

 

उच्च शिक्षा के लिए पटना पढ़ने गए तो घर से 11 रुपया मिला था  लेकिन उन पैसे से शहर में रहना और पढना संभव नहीं हों सका |   इनका नामांकन किसी तरह होता है|  इन्होने पढ़ने के लिए बच्चों को पढ़ाया , दूसरे के घरो में रह कर पढ़ाई की

 

बिहार की राजनीति में जगदेव बाबू, जिन्हें “शोषितों का मसीहा” भी कहा जाता है, का योगदान और संघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका संघर्ष न केवल राजनीतिक अस्थिरता से जूझने वाला था, बल्कि एक वैचारिक क्रांति का हिस्सा भी था। 1960 के दशक में उनके नेतृत्व और वैचारिक बदलावों ने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी।

कैबिनेट में प्रवेश और राजनीतिक बदलाव

जगदेव बाबू पहली बार तब सुर्खियों में आए जब 1 फरवरी 1968 को उन्होंने बिहार कैबिनेट में बतौर मंत्री शपथ ली। इस शपथ ग्रहण के साथ ही, विधान परिषद के सदस्य परमानंद जी से इस्तीफा दिलाकर, बिदेश्वरी प्रसाद मण्डल को विधान परिषद का सदस्य नियुक्त किया गया। इसके ठीक तीन दिन बाद, सतीश प्रसाद को मुख्यमंत्री पद से हटाकर वी. पी. मण्डल को मुख्यमंत्री बनाया गया। जगदेव बाबू दूसरे नंबर के मंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार को राजनीतिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा।

मार्च 1968 में, कांग्रेस के 13 विधायकों के बागी होने के कारण वी. पी. मण्डल की सरकार गिर गई, जिससे बिहार की राजनीति में अस्थिरता का दौर प्रारंभ हुआ। यह स्थिति स्पष्ट रूप से दिखाती है कि उस समय बिहार में राजनीतिक स्थिरता कितनी नाजुक थी।

जगदेव बाबू और डॉ. राममनोहर लोहिया के बीच वैचारिक मतभेद भी 1960 के दशक के अंत में स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आए। लोहिया और जगदेव बाबू के बीच 33 सूत्रीय मांगों को लेकर विवाद हुआ, जिसके चलते जगदेव बाबू ने शोषित दल की स्थापना की। उनका मानना था कि पिछड़े और शोषित वर्गों की समस्याओं का समाधान केवल एक नई पार्टी के माध्यम से ही हो सकता है, जो उनके अधिकारों के लिए लड़े।

22 मार्च 1968 को भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने, लेकिन तीन महीने बाद उनकी सरकार भी गिर गई। फिर 1969 में हुए चुनाव में जगदेव बाबू के नेतृत्व वाली शोषित दल ने चुनाव लड़ा, लेकिन वह केवल 6 सीटें ही जीत पाई। इसके बावजूद, कांग्रेस, जनता पार्टी, क्रांति दल और अन्य के सहयोग से सरकार बनी, जिसमें सरदार हरिहर सिंह मुख्यमंत्री बने। यह दौर बिहार की राजनीति में अत्यधिक अस्थिरता का था, जहां सरकारें लगातार बदलती रहीं।

जगदेव बाबू के नारों की गूंज और संघर्ष

जगदेव बाबू की विचारधारा और उनके नारों ने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी। 1969 के बाद उनके द्वारा उठाए गए सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों ने बिहार में राजनीतिक भूचाल लाया। उनका नारा संविधान की कुर्सी पर बैठा गद्दारों का गिरोह, दलितों-पिछड़ों को उनका हक नहीं दे सकता राजनीतिक मंचों पर खूब गूंजा।

उनके ये नारे न केवल एक राजनीतिक विरोध के प्रतीक थे, बल्कि समाज के दलित और पिछड़े वर्गों की आवाज को बुलंद करने का जरिया बने। जगदेव बाबू के नेतृत्व में शोषितों के अधिकारों के लिए संघर्ष ने बिहार की राजनीति में क्रांतिकारी बदलाव लाया। हालांकि, राजनीतिक अस्थिरता के कारण कई बार सरकारें गिरती-बनती रहीं, लेकिन उनके संघर्ष और नारों ने शोषितों के अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जगदेव बाबू का राजनीतिक जीवन और संघर्ष बिहार की अस्थिर राजनीति में एक स्थायी छाप छोड़ने वाला रहा है। उन्होंने शोषित वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और उनके नारों ने बिहार की राजनीति को एक नई दिशा दी। यद्यपि उनकी सरकारों को अस्थिरता का सामना करना पड़ा, लेकिन उनकी वैचारिक दृढ़ता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता आज भी बिहार की राजनीति में एक प्रेरणा स्रोत बनी हुई है।

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